बिहार की राजनीति: बाप-बेटों का खेल और  जनता का फैसला?

बिहार की राजनीति: बाप-बेटों का खेल और  जनता का फैसला?

बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरणों, परिवारवाद और सत्ता संघर्ष के इर्द-गिर्द घूमती रही है। एक दौर था जब लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, शकुनी चौधरी और नीतीश कुमार जैसे नेता बिहार को विकास की राह पर ले जाने का दावा करते थे। लेकिन हकीकत यह है कि बिहार में गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे जैसे मुद्दे आज भी वहीं खड़े हैं जहां दशकों पहले थे। इन नेताओं ने अपनी राजनीतिक सत्ता को मजबूत किया, लेकिन बिहार की जनता के सपनों को पूरा करने में असफल रहे।

अब जब इनके बेटे – तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, सम्राट चौधरी और निशांत कुमार – राजनीति की कमान संभालने की तैयारी कर रहे हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या बिहार फिर से परिवारवादी राजनीति के जाल में फंसने वाला है? क्या ये नए नेता उन समस्याओं का समाधान कर पाएंगे जो उनके पूर्वज नहीं कर सके? आइए बिहार की राजनीति और इसकी असली समस्याओं पर एक नजर डालते हैं।


बिहार की राजनीति: चार नेताओं की विरासत और उनकी नाकामियां

1. लालू प्रसाद यादव – समाजवाद या जंगलराज?

लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में बिहार में सामाजिक न्याय और पिछड़ों के उत्थान का नारा दिया। उनके कार्यकाल में यादव और मुस्लिम समुदायों का मजबूत राजनीतिक आधार बना। लेकिन उनके शासनकाल को "जंगलराज" के नाम से जाना गया। अपराध, भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी ने बिहार की छवि को राष्ट्रीय स्तर पर धूमिल कर दिया।

लालू की नाकामियां:

  • कानून व्यवस्था की स्थिति बदतर हुई।
  • भ्रष्टाचार चरम पर पहुंचा (चारा घोटाला एक बड़ा उदाहरण)।
  • औद्योगिक विकास पूरी तरह से ठप हो गया।
  • युवा और पढ़े-लिखे लोग बिहार छोड़ने पर मजबूर हुए।

2. रामविलास पासवान – दलितों के नेता या अवसरवादी?

रामविलास पासवान को बिहार के दलितों का सबसे बड़ा नेता माना जाता था। वे हर सरकार में मंत्री रहे, चाहे केंद्र में कांग्रेस हो, बीजेपी हो या गठबंधन सरकार। लेकिन क्या उन्होंने दलितों की स्थिति में कोई बड़ा सुधार किया?

रामविलास की नाकामियां:

  • दलितों के सामाजिक उत्थान पर ठोस काम नहीं किया।
  • राजनीति में अवसरवादिता को बढ़ावा दिया।
  • बिहार में उनकी पार्टी कमजोर होती गई।

3. शकुनी चौधरी – कुशवाहा राजनीति तक सीमित

शकुनी चौधरी कुशवाहा समाज के बड़े नेता रहे, लेकिन उनका प्रभाव सीमित था। वे नीतिगत बदलाव लाने में असफल रहे और जातिगत राजनीति से आगे नहीं बढ़ पाए।

उनकी नाकामियां:

  • राज्य की बड़ी समस्याओं को नजरअंदाज किया।
  • केवल जातीय समीकरणों तक सीमित रहे।

4. नीतीश कुमार – सुशासन बाबू से ‘पलटीमार’ तक का सफर

नीतीश कुमार को एक समय पर बिहार का ‘सुशासन बाबू’ कहा जाता था। उन्होंने लालू के जंगलराज के बाद 2005 में सत्ता संभाली और कई सकारात्मक बदलाव लाए। लेकिन समय के साथ उन्होंने सत्ता बनाए रखने के लिए बार-बार गठबंधन बदले, जिससे उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे।

नीतीश की नाकामियां:

  • औद्योगिकीकरण की नाकामी।
  • बेरोजगारी का कोई ठोस समाधान नहीं।
  • पलायन की समस्या जस की तस बनी रही।
  • बार-बार पाला बदलने से जनता का विश्वास कमजोर हुआ।

बिहार की असली समस्याएं जिन पर कोई बात नहीं करता

1. बेरोजगारी और पलायन

बिहार में हर साल लाखों युवा 12वीं और ग्रेजुएशन पास करके नौकरी की तलाश में दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे शहरों में चले जाते हैं। सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित है और निजी उद्योग लगभग न के बराबर हैं। लेकिन किसी भी नेता ने इसे गंभीरता से हल करने की कोशिश नहीं की।

समाधान:

  • बिहार में आईटी और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देना।
  • कृषि आधारित उद्योगों को विकसित करना।
  • स्टार्टअप और एंटरप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देना।

2. शिक्षा की दयनीय स्थिति

बिहार के सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की हालत बहुत खराब है। शिक्षा के नाम पर सिर्फ डिग्री मिल रही है, लेकिन स्किल्स और रोजगार की कोई गारंटी नहीं है। बिहार बोर्ड में हर साल होने वाले घोटाले इसका बड़ा उदाहरण हैं।

समाधान:

  • सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की गुणवत्ता में सुधार।
  • शिक्षा प्रणाली को रोजगारपरक बनाना।
  • तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देना।

3. स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी

बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति इतनी खराब है कि लोग छोटे से इलाज के लिए भी दिल्ली और अन्य राज्यों में जाने को मजबूर हैं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी है।

समाधान:

  • हर जिले में एक उच्च स्तरीय अस्पताल की स्थापना।
  • मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ाना।
  • प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना।

4. अपराध और भ्रष्टाचार

बिहार में कानून व्यवस्था की स्थिति अभी भी बहुत खराब है। अपराध, घूसखोरी और भ्रष्टाचार आज भी आम हैं।

समाधान:

  • पुलिस और न्याय व्यवस्था में सुधार।
  • ई-गवर्नेंस को बढ़ावा देना।
  • अपराधियों को राजनीति से बाहर करना।

अब बेटों की बारी: क्या यह बिहार का भविष्य है?

अब जब इन पुराने नेताओं के बेटे राजनीति में आ रहे हैं, तो सवाल उठता है कि क्या वे बिहार को सही दिशा में ले जा पाएंगे?

  • तेजस्वी यादव (लालू के बेटे) – खुद को युवा नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, लेकिन उनके पास कोई ठोस नीति नहीं दिखती।
  • चिराग पासवान (रामविलास के बेटे) – "बिहारी बेटा" का नारा तो दिया, लेकिन उनके पास भी कोई स्पष्ट एजेंडा नहीं है।
  • सम्राट चौधरी (शकुनी के वारिस) – बीजेपी में हैं, लेकिन स्वतंत्र पहचान बनाना बाकी है।
  • नीशांत कुमार (नीतीश के बेटे) – अभी राजनीति में सक्रिय नहीं हैं, लेकिन भविष्य में उनकी भूमिका हो सकती है।

इनमें से कोई भी नेता बिहार की असली समस्याओं – बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, और अपराध – पर गंभीरता से बात नहीं करता।


बिहार को क्या चाहिए?

बिहार को ऐसे नेताओं की जरूरत है जो जाति, धर्म और परिवारवाद से ऊपर उठकर विकास पर ध्यान दें।

  • रोजगार और उद्योगों को बढ़ावा देना।
  • शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार।
  • भ्रष्टाचार और अपराध को खत्म करना।

निष्कर्ष: क्या बिहार बदलेगा?

"जीवो बिहार" का नारा तो अच्छा लगता है, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या बिहार वाकई बदलेगा? क्या जनता जातिवाद और परिवारवाद से बाहर निकलकर विकास को प्राथमिकता देगी? यह फैसला जनता के हाथ में है। अगर बिहार को आगे बढ़ना है, तो उसे ऐसे नेताओं को चुनना होगा जो सिर्फ वादे न करें, बल्कि काम भी करें।

बिहार को बाप-बेटों के खेल से बाहर निकलकर असली विकास की राह पकड़नी होगी। अब फैसला बिहार की जनता को करना है!

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